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Showing posts from April, 2016

सवाल था कि आदमी मेहनत से आगे बढ़ता है या भाग्य से?

एक पान वाला था। जब भी पान खाने जाओ ऐसा लगता कि वह हमारा ही रास्ता देख रहा हो। हर विषय पर बात करने में उसे बड़ा मज़ा आता। कई बार उसे कहा की भाई देर हो जाती है जल्दी पान लगा दिया करो पर उसकी बात ख़त्म ही नही होती। एक दिन अचानक कर्म और भाग्य पर बात शुरू हो गई। तक़दीर और तदबीर की बात सुन मैनें सोचा कि चलो आज उसकी फ़िलासफ़ी देख ही लेते हैं। मैंने एक सवाल उछाल दिया। मेरा सवाल था कि आदमी मेहनत से आगे बढ़ता है या भाग्य से? और उसके जवाब से मेरे दिमाग़ के सारे जाले ही साफ़ हो गए। कहने लगा,आपका किसी बैंक में लाकर तो होगा? उसकी चाभियाँ ही इस सवाल का जवाब है। हर लाकर की दो चाभियाँ होती हैं। एक आप के पास होती है और एक मैनेजर के पास। आप के पास जो चाभी है वह है परिश्रम और मैनेजर के पास वाली भाग्य। जब तक दोनों नहीं लगतीं ताला नही खुल सकता। आप कर्मयोगी पुरुष हैं ओर मैनेजर भगवान। अाप को अपनी चाभी भी लगाते रहना चाहिये।पता नहीं ऊपर वाला कब अपनी चाभी लगा दे।  कहीं ऐसा न हो की भगवान अपनी भाग्यवाली चाभी लगा रहा हो और हम परिश्रम वाली चाभी न लगा पायें और ताला खुलने से रह जाये ।

मैं वाट्सएप करूँ भगवान को... और उसमें 'ब्लू टीक' हो जाए...!!!

एक बार सत्यनारायण कथा की आरती मेरे सामने आने पर मैंने छाँट कर जेब में से कटा फटा पाँच रू का नोट कोई देखे नहीं , ऐसा डाला । वहाँ अत्यधिक ठसाठस भीड़ थी । मेरे कंधे पर ठीक पीछे वाले सज्जन ने थपकी मार कर मेरी ओर ५०० रू का नोट बढ़ाया ।मैंने उनसे नोट ले कर आरती में डाल दिया । अपने मात्र ५ रू डालने पर थोड़ी लज्जा भी आई । बाहर निकलते समय मैंने उन सज्जन को श्रद्धा पूर्वक नमस्कार किया तब उन्होंने बताया कि ५ रू का नोट निकालते समय ५०० का नोट मेरी ही जेब से गिरा था, जो वे मुझे दे रहे थे । _________________________ काश.. मेरी भी कुछ मुरादें युँ पूरी हो जाए.. "मैं वाट्सएप करूँ भगवान को... और उसमें 'ब्लू टीक' हो जाए...!!!

" अपेक्षा और उपेक्षा " ये दो ऐसी घातक भावनाएं हैं, जो मजबूत से मजबूत सम्बंधों की जडें हिलाकर रख देती हैं!!!!!

" अपेक्षा और उपेक्षा " ये दो ऐसी घातक भावनाएं हैं, जो मजबूत से मजबूत सम्बंधों की जडें हिलाकर रख देती हैं!!!!!                अपेक्षा और उपेक्षा में एक बारीक फर्क है एक देती दर्द है दूसरी सुखद क्षण है यदि तुम करते हो खुद से यह दोनों दूजें समझे तुमको बौना कर्म करो सही दिशा में दशायें तो क्षणभंगुर हैं बदलते मौसम का ज्वर हैं जिसके फेर में जीते दुर्बल हैं जो है ही नहीं सांसों में उस सन्निपात का नाम कायरों ने रखा डर है इसे मार भगाओ मन से भीतर घात से बाहर आओ पर कुतरे आसमानों ने शुरूआतें ऐसे ही होती यारों ।।                           संसार को जब भी हम अपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं तो संग पैदा होता है। जैसे ही उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं तो संग की भावना समाप्त हो जाती है। आसक्ति हटती है, अटैचमेंट टूटता है। इसलिए मैं कहता हूँ कि कभी भी किसी की तरफ अपेक्षा की दृष्टि से मत देखना, बल्कि उपेक्षा की दृष्टि से देखना। कोई भी चीज जो मोह रही हो, उससे अटैच मत होईये। रास्ते में चलते हुए आपको अगर बाजार में कोई चीज दिखे, बिकने को तैयार खड़ी गाड़ी दिखे, ज्वैलरी शाप में सजे हुये जेवर दिखें, या कि